जांच में खुद को ही फंसा बैठे जबलपुर CMHO: डॉ.संजय मिश्रा की विश्वसनीयता पर उठा सवाल,अब नहीं बचती दिख रही कुर्सी...
जबलपुर,मध्यप्रदेश।।स्वास्थ्य विभाग के सबसे अहम पदों में शुमार जिला मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी(CMHO) की कुर्सी जबलपुर में अब विवादों के जाल में उलझ चुकी है।डॉ.संजय मिश्रा,जो वर्षों तक विभागीय शक्ति और राजनीतिक पहुंच का कवच ओढ़े रहे,अब उसी जांच रिपोर्ट में बेनकाब हो गए हैं जिसमें उन्होंने खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश की थी।
जांच में मिली गंभीर विसंगतियां:'बचाव' बना 'साक्ष्य'
डॉ.मिश्रा पर आरोप थे—लेकिन हैरानी की बात ये नहीं, हैरानी इस बात की है कि उन्होंने खुद जो जवाब दिए,वे ही उनकी दोष सिद्धि का सबसे बड़ा आधार बन गए।शासन को भेजी गई जांच रिपोर्ट में न केवल उनके उत्तरों को ‘स्व-विरोधी’ और ‘भ्रमित करने वाला’ माना गया,बल्कि कई मामलों में दस्तावेज़ों के अभाव ने उनके दावों को पूरी तरह खारिज कर दिया।
आरोप नहीं,प्रशासनिक पतन की कहानी है यह
1.निजी लैब में भागीदारी –यह कोई साधारण विभागीय उल्लंघन नहीं था,डॉ. मिश्रा स्वयं स्वीकार करते हैं कि उनका नाम लैब्स में था।लेकिन सवाल उठता है—अगर नाम हटवाया था,तो प्रमाण क्यों नहीं?
2.दो विवाह – मिश्रा का जवाब,“इशिप्ता सिंह से 2017 में विवाह किया,” लेकिन पहली पत्नी तृप्ति मिश्रा के नाम से दस्तावेजों में हेरफेर क्यों?
3.फर्जी दस्तावेज़ – सेवा पुस्तिका में गुपचुप पन्ने जोड़ना, कोई भूल नहीं, एक योजनाबद्ध प्रयास था विभाग को गुमराह करने का।
4.बिना अनुमति संपत्ति खरीदना – यह कोई सामान्य उल्लंघन नहीं,निजी हितों की सरकारी व्यवस्था पर जीत की कोशिश थी,जो अब उजागर हो चुकी है।
शासन की चुप्पी,विभाग की चूक:
सात साल तक कैसे 'गायब' रहे मिश्रा?
1990 में चयन, 1997 में जॉइनिंग—इस बीच सात साल कहां रहे डॉक्टर साहब? उन्होंने MD की पढ़ाई बताई, लेकिन इसकी अनुमति किसने दी, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं।
यही नहीं, IFMIS पोर्टल जैसी सुरक्षित सरकारी प्रणाली में खुद से परिवार विवरण बदल देना—यह तकनीकी अनियमितता नहीं,सिस्टम के साथ जानबूझकर खिलवाड़ है।
सवाल सिर्फ डॉ.मिश्रा पर नहीं, सिस्टम पर भी है
क्या एक व्यक्ति वर्षों तक बिना किसी संरक्षण के इतना आगे बढ़ सकता है?
क्या मिश्रा की पहुंच ने ही उन्हें अब तक कार्रवाई से बचा रखा था?
क्या विभाग जान-बूझकर आंख मूंदे रहा, या यह अंदरूनी मिलीभगत थी?
ब्लैकमेलिंग का शोर, लेकिन मकसद क्या था?
कुछ सप्ताह पहले डॉ.मिश्रा ने कुछ पत्रकारों व राजनीतिक पार्टी के पदाधिकारी पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया।साथ में खड़े थे Apple लैब के अमित खरे—जिनका मिश्रा से व्यापारिक संबंध अब उजागर हो चुका है।
क्या यह असल में 'ब्लैकमेलिंग' थी या 'एक्सपोज़र' से बचने की रणनीति?
उपमहाधिवक्ता की भूमिका भी घेरे में
हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका के दौरान शासन की ओर से खड़े उपमहाधिवक्ता ने मिश्रा का पक्ष रखा—जबकि उन्हें केवल शासन का बचाव करना था।
क्या यह सिर्फ पेशेवर चूक थी या व्यक्तिगत हितों की अभिव्यक्ति?
अब क्या आगे?
जांच रिपोर्ट शासन तक पहुंच चुकी है
लोकायुक्त को हाईकोर्ट द्वारा जांच सौंप दी गई है
अनुशासनात्मक कार्रवाई तय मानी जा रही है—पर रूप क्या होगा,यह देखना शेष है
एक बड़ी कुर्सी,कई सवाल,और अब गिरता विश्वास
डॉ.संजय मिश्रा पर लगे आरोप व्यक्तिगत नहीं, संस्थागत गिरावट के प्रतीक हैं।
स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील विभाग में एक अधिकारी द्वारा वर्षों तक नियमों को धता बताते हुए अपना निजी नेटवर्क चलाना,व्यवस्था की उस खामोशी को उजागर करता है जो भीतर ही भीतर व्यवस्था को खोखला करती रही।
अब जब रिपोर्ट उनके खिलाफ बोल चुकी है, शासन के सामने दो ही रास्ते हैं —
या तो उदाहरण पेश करे,
या फिर एक और 'फाइल क्लोज' कर दे।