मध्यप्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था एक बार फिर कठघरे में है। सवाल उठ रहा है—
याचिकाकर्ता के वकील अमिताभ गुप्ता ने बार काउंसिल और महाधिवक्ता को लिखित शिकायत देकर बताया कि गांगुली ने सरकारी अधिवक्ता होते हुए भी निजी प्रतिवादी डॉ. संजय मिश्रा की ओर से बिना किसी अधिकृत वकालतनामा के पक्ष रखा। सबसे हैरानी की बात यह कि डॉ. मिश्रा पर गंभीर आरोप हैं—बहुविवाह, शासकीय दस्तावेजों की कूटरचना, और आय से अधिक संपत्ति की जांच में लिप्त होने के बावजूद, उन्हें 'उत्पीड़न का शिकार' बताया गया।
इस पूरे प्रकरण में लोकायुक्त के वकील की चुप्पी और निष्क्रियता ने भी सवाल खड़े किए हैं। आखिर वह क्यों चुप रहे जबकि अदालत पहले ही लोकायुक्त को जांच का आदेश दे चुकी थी? यह चुप्पी क्या मिलीभगत का संकेत है?
गांगुली द्वारा याचिकाकर्ता के वकील पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करना, पेशेवर गरिमा पर हमला करना, और सरकार के रिकॉर्ड को कोर्ट से छिपाना - ये सब अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग करते हैं।
मप्र बार काउंसिल को भेजी गई शिकायत में अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 और 36 के तहत कड़ी कार्यवाही की मांग की गई है। अब देखना होगा कि बार काउंसिल और महाधिवक्ता क्या यह साबित करेंगे कि न्यायिक नैतिकता सिर्फ किताबों की बात नहीं?