कानून की रक्षा करने वाले दो पुलिसकर्मियों पर अब कानून तोड़ने और मासूम आदिवासी बच्चियों के जीवन को नर्क बनाने का गंभीर आरोप लगा है। जशपुर जिले की दो बच्चियों के साथ जो कुछ हुआ, वह न केवल पुलिस की संवेदनहीनता को उजागर करता है, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा सवाल खड़ा करता है — क्या गरीब आदिवासी बच्चियों की ज़िंदगी केवल उपयोग की वस्तु बनकर रह गई है?
भरोसे की डोर टूटी, सपनों की राह जेल में बदल गई
13 और 16 साल की दो मासूम बच्चियों को उनके कथित रिश्तेदार पढ़ाई के बहाने जशपुर से बिलासपुर लेकर आए थे। लेकिन यह सफर उन्हें शिक्षा की राह पर नहीं, बल्कि एक मानसिक और शारीरिक कैद की ओर ले गया। पुलिस क्वार्टर में कैद, बाहरी दुनिया से कटे हुए, और दिन-रात घरेलू मजदूरी में झोंकी गईं – यह कहानी किसी उपन्यास की कल्पना नहीं, छत्तीसगढ़ की सच्चाई है।
कानून के रक्षक या भक्षक? पुलिस कॉलोनी में छिपा शोषण का अड्डा
बिलासपुर के सिरगिट्टी क्षेत्र स्थित तिफरा पुलिस कॉलोनी – जहां आमतौर पर कानून की सेवा की उम्मीद की जाती है, वही अब मानवाधिकार हनन का प्रतीक बन गया। दोनों बच्चियों को दो पुलिसकर्मियों के घरों में नौकरानी की तरह रखा गया। उनसे झाड़ू-पोछा, बर्तन, कपड़े धोने से लेकर बच्चों की देखरेख तक का काम लिया गया। छह महीने तक वे कैद में रहीं। बाहर किसी से मिलने या पढ़ाई की बात तो दूर, मारपीट और मानसिक प्रताड़ना उनका हिस्सा बन चुकी थी।
बचाव की रात: भागकर पहुंचीं तोरवा थाने के पास, लोगों ने दिखाई इंसानियत
रविवार की रात, किसी चमत्कार की तरह दोनों बच्चियां कैद से निकल भागीं। बिलासपुर के तोरवा थाना क्षेत्र के लालखदान इलाके में वे रोती हुई नजर आईं। स्थानीय लोगों ने उन्हें देखकर पुलिस को सूचना दी और फिर पुलिस ने उन्हें ‘सखी सेंटर’ भेजा। यहीं से उनकी कहानी सामने आई, जिसने प्रशासन और समाज को झकझोर कर रख दिया।
परिजनों का दोहरा बयान: डर, दबाव या सच्चाई?
जब पुलिस ने बच्चियों से पूछताछ की तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। लेकिन दूसरी ओर, परिजनों के बयान संदेह के घेरे में हैं। एक बच्ची की मां ने कहा कि उन्होंने बच्ची को पढ़ाई के लिए ही भेजा था, न कि जबरन मजदूरी के लिए। दूसरी बच्ची के परिजन ने भी मारपीट के आरोपों से इनकार किया है। सवाल उठता है – क्या ये बयान दबाव में दिए गए हैं? या फिर किसी भय के तहत?
बाल कल्याण समिति की निगरानी में आगे की कार्रवाई
फिलहाल दोनों बच्चियों को बाल कल्याण समिति की निगरानी में रखा गया है और पुलिस ने जांच प्रारंभ कर दी है। सीएसपी निमितेश सिंह ने स्पष्ट किया है कि तथ्यों और मेडिकल परीक्षणों के आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी। बच्चियों की काउंसलिंग भी करवाई जा रही है, ताकि वे मानसिक रूप से स्थिर हो सकें।
न्याय का इंतज़ार: क्या पुलिस अपने ही कर्मियों के
विरुद्ध निष्पक्ष जांच करेगी?
इस मामले ने एक बार फिर सवाल उठाया है कि क्या सिस्टम अपने भीतर के दोषियों को बचा लेता है? क्या वर्दी पहन लेने मात्र से कोई अपराधमुक्त हो जाता है? यह घटना केवल बाल संरक्षण कानूनों का उल्लंघन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और पुलिस आचरण की गंभीर परीक्षा है।