आज हम ऐसे ऐतिहासिक मंदिर के इतिहास विषय मे जानेंगे,आखिर इस मंदिर की मान्यता क्या-क्या है..

आज हम ऐसे ऐतिहासिक मंदिर के इतिहास विषय मे जानेंगे,आखिर इस मंदिर की मान्यता क्या-क्या है..


कैसे इस मंदिर में लोगों की मन्नत पूरी होती है और क्या इस मंदिर का इतिहास रहा है....


ऐसा भी कहा जाता है इस मंदिर में बिराजी देवी की मूर्ति सातवीं सदी की है....


अपनी -अपनी मन्नत पूरी करने के लिए लोग बांधते हैं नारियल...


जिला मुख्यालय से इस मंदिर की दूरी महज 13 किलोमीटर है.....


आईये हम विस्तृत चर्चा करते हैं इस मंदिर के इतिहास व मान्यताओं के बारे में....
जबलपुर।।त्रिपुर सुंदरी मंदिर जबलपुर से 13 किमी दूर भेड़ाघाट रोड पर स्थित है,11वीं शताब्दी में बने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां की मूर्ति 7वीं शताब्दी की है।

ऐसा भी कहा जाता है माँ त्रिपुर सुंदरी कल्चुरी राजा कर्णदेव की कुल देवी रही।इस मंदिर में  लोग मन्नत के तौर पर नारियल भी बांधते हैं नारियलों को तभी खोला जाता है जब उनकी मन्नत पूरी होती है।पुरातत्व विभाग की खुदाई के समय कुछ वर्ष पहले इस बात की पुष्टि हुई थी मंदिर के पीछे कोई नगर हुआ करता था।मां त्रिपुर सुंदरी मंदिर के मुख्य पुजारी 84 साल के रमेश प्रसाद दुबे के मुताबिक मान्यता है कि राजा कर्णदेव मां के अनन्य भक्तो में से थे।राजा कर्णदेव प्रतिदिन खौलते हुए कढ़ाहे में कूद जाते थे।मां भक्षण करने के बाद अपने अमृत से राजा कर्णदेव को जीवित कर और उनसे प्रसन्नचित होकर उन्हें सवा मन सोना दिया करती थीं।वर्तमान में इस मंदिर का प्रबंधन पुरातत्व विभाग करता है।


त्रिपुर सुंदरी मंदिर को लेकर कई तरह की किवदंतियां हैं।मंदिर के आस -पास अलौकिक प्राकृतिक वातावरण भी स्थापित है।मंदिर के चारों ओर दिव्य मूर्तियों की एक शृंखला भी मिलती है जिसका केंद्र बिंदु त्रिपुर सुंदरी मंदिर भी है 5कि.मी क्षेत्र के चारों ओर 52 झरने हैं।मान्यता है कि यहां त्रिपुरासुर नाम का राक्षस का आतंक हुआ करता था।उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने मां त्रिपुर सुंदरी का पूजन किया फिर उनके प्रभाव से भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर राक्षस का संहार किया था।इसलिए इस मंदिर को त्रिपुर सुंदरी के नाम से भी जाना जाता है।

 

माँ त्रिपुर सुंदरी को हथियागढ़ की देवी के नाम से भी जाना जाता है क्यों...?


वर्तमान में जिस जगह पर मंदिर स्थापित है आज से पहले उस जगह का नाम हथियागढ़ भी हुआ करता था।इस कारण से मां को हथियागढ़ की मां के रूप में भी जाना जाता था।जब मां ने स्वप्न के माध्यम से कहा मुझे आज से त्रिपुर सुंदरी नाम से पुकारा जाये।तब से ही हथियागढ़ की मां को त्रिपुर सुंदरी के नाम से लोग जानने लगे,माँ के इस सुंदर अलौकिक स्वरूप को राजराजेश्वरी,ललिता और महामाया के रूप में भी मानते हैं।



वहीं इस मंदिर के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ.आनंद सिंह राणा का कहना है एक समय त्रिपुर केंद्र नाम का एक तांत्रिक पीठ हुआ करता था।इस जगह पर तांत्रिक कठोर साधना कर भगवान शिव को प्रसन्न किया करते थे।हमारे पुणों में इस बात का उल्लेख है कि शिव की मूर्ति इन पांच स्वरूपो से तत्पुरुष,वामदेव,ईशान,अघोर और सदोजात से बनी हुई थी।इस बात की पुष्टि पुरातत्व विभाग के द्वारा खुदाई करके की गई कि इस जगह पर एक नगर बसा हुआ करता था।जब भी मंदिर के आसपास थोड़ी सी भी खुदाई की जाती है तो कल्चुरी काल से संबंधित कुछ न कुछ मिल जाता है।

मंदिर के विषय में ऐसा भी कहा जाता है माता की जो मूर्ति मंदिर में स्थापित वह मूर्ति धरती से प्रगट हुई हैं।माँ की मूर्ति केवल एक ही शिलाखंड के सहारे पश्चिम दिशा की ओर मुंह को किए अधलेटी अवस्था में है।इस त्रिपुर सुंदरी धाम की खासियत यह है कि महाकाली,महालक्ष्मी, महासरस्वती इन तीनों देवियों का अक्स एक शिला पर उभरा हुआ है यहां की यह भी मान्यता है कि इन देवियों का दिन में तीन बार स्वरूप बदलता रहता है इसलिए मंदिर के नाम को उन देवियों की शक्ति और सामर्थ्य का प्रतीक माना गया है।

मंदिर के इतिहास के विषय में ऐसा भी कहा जाता है कि कल्चुरी शासन के पतन के बाद यहां पर एक घना जंगल हो गया था।सन1985 के पहले यहां पर बेल का घना जंगल हुआ करता था।जिस जगह पर आज मंदिर स्थापित है उस जगह पर पहले एक किला हुआ करता था। जिसमें एक प्राचीन मूर्ति थी।किले के पास में ही एक गड़रिया रहा करता था,जो मूर्ति के पास अपनी बकरियां बांधा करता था।वही मंदिर के बड़े पुजारी रमेश प्रसाद दुबे का कहना है कि मूर्ति को लेकर माँ मेरे स्वप्न में आयी थी।इसके बाद से ही मैं नर्मदा जल और माला चढ़ाने लगा।जिसे देख धीरे-धीरे यहां पर श्रद्धालु आने लग गए और धीरे -धीरे मंदिर का विकास कार्य होता गया।84 साल की उम्र में भी वह अनवरत रूप से प्रतिदिन मां नर्मदा का जल और पुष्प सबसे पहले माँ त्रिपुर सुंदरी को अर्पित करते हैं।इस ऐतिहासिक मंदिर में आस्था रखने वालों में विदेशी भी शामिल हैं।बड़ी संख्या में यहां पर विदेशों से भक्त आते रहते हैं और चढ़ावे के तौर पर डॉलर,यूरो भी चढ़ाते हैं।मंदिर के प्रबंधन को संभाल रहा प्रशासन और पुरातत्व विभाग एवं साथ ही चढ़ावे में आई हुई रकम को साल में एक बार गिनती करा कर उसे बैंक में जमा किया जाता है।ताकि इस चढ़ावे की रकम से मंदिर में विकास कार्य कराया जा सकें हैं।यहां लोग नारियल बांध कर मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर उसे खोल कर हवन कुंड में डाल देते हैं।


नवरात्र में भक्तों की भारी संख्या में भी भीड़ उमड़ती है फिलहाल अभी मंदिर में नवरात्रों के दिनों में कोरोना प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है मंदिर प्रांगण में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है मार्क्स नहीं तो प्रवेश नहीं......


जय माता दी

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